Headlines 18 ओपिनियन : आयाराम- गयाराम: दलबदल की राजनीति में आख़िर किसका हित ?

महाराष्ट्र मे विधानसभा चुनाव नजदीक है इसी दौरान नेताओं के दल बदलने का सिलसिला शुरू हो गया है.उससे यह साफ होता है की भारतीय लोकतंत्र किस तरह अवसरवादी राजनीती से ग्रस्त है.कहते है की हवा में बर्फ- सा दल- दल है। मन में इच्छाओं, आकांक्षाओं, महत्वाकांक्षाओं का दल- दल है। और आज की राजनीति में दलबदल का दलदल है। वही हाल पालघर के दो दिग्गज नेताओं का है जिन्होंने राज्यमंत्री तक की जिम्मेदारी निभाई है फिर भी उनको एक दल रास नहीं आया और चार बार पाला बदल दिया.
जनता जिस दल के लिए उन्हें वोट देती हैं, पाँच साल में वे दूसरे या तीसरे दल की तरफ़ हो जाते हैं और कभी तो चौथे में जाकर हमसे फिर वोट माँगने आ जाते हैं, लेकिन जनता को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। जनता फिर उन्हीं को वोट दे देती हैं और वे फिर दल बदल लेते हैं। इसे ऐसे देखें- किसी नेता से हमारा लगाव उसके कार्यों या उसकी पार्टी के कारण हो सकता है। किसी पार्टी से और किसी गठबंधन से भी हमारा सार्वजनिक हित जुड़ा हो सकता है। लेकिन उसी पार्टी को, उसी गठबंधन को जब वो नेता तोड़कर किसी और दल में जाता है, यही एक मात्र वो कृत्य होता है जिससे हम आम लोगों का कोई वास्ता नहीं होता।
आमतौर पर नेता दलबदल केवल और केवल अपने निजी स्वार्थ के कारण करते है। इसमें उनके पद की लालचा और महत्वाकांक्षा होती है जहां से टिकिट मिलने की उम्मीद होती है उसका दामन थाम लेते है भले जिस पार्टी से वो बड़े बन गए उससे उनको कोई फर्क नहीं पड़ता है.
पालघर जिले के पूर्व सांसद राजेंद्र गावित कांग्रेस से विधायिकी के साथ राज्यमंत्री बने फिर भाजपा से सांसद फिर शिवसेना से सांसद उसके बाद फिर भाजपा मे शामिल हो गए. अब लोगो मे यह भी चर्चा है की कही विधानसभा चुनाव से पहले फिर से कांग्रेस का दामन नहीं थाम ले.
इसी तरह मनीषा नीमकर शिवसेना से विधायिकी से राज्यमंत्री बनी फिर उन्हें टिकिट नहीं मिला तो 2014 मे बहुजन विकास आघाडी मे प्रवेश किया वहां विधानसभा चुनाव मे उनकी पराजय हुई. 2019 मे जव्हार मे देवेंद्र फडनवीज की मौजूदगी मे भाजपा का दामन थामा अब फिर से विधानसभा चुनाव के पहले शिवसेना मे वापसी की.

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